प्रिय पाठकों/मित्रों नवरात्रि में मां दुर्गा की शक्ति की पूजा की
जाती है। इस वर्ष 21 सितंबर 2017 से शारदीय नवरात्रि शुरू हो चुके हैं।
नवरात्रि में दुर्गा सप्तशती का भी पाठ करने का विधान है। हर कोई दुर्गा
सप्तशती का पाठ करता हैं, लेकिन इसके कुछ चमत्कारिक मंत्र भी हैं, जो शायद
ही लोगों का पता हो। इस मंत्र को बोलने से दुख तो दूर होता ही है साथ ही
व्यक्ति का मानसिक तनाव भी कम होता है।
नवरात्र
के नौ दिन नियमित रूप से दुर्गा सप्तशती का पाठ करना अच्छा माना जाता है।
इससे घर में समृद्धि आती है। लेकिन यदि समय के अभाव के चलते आप पूरा पाठ
नहीं कर सकते तो नियमित रूप से सामान्य पूजन के साथ अपनी राशि अनुसार मंत्र
का जाप करने से मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं।
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आज करेंगें प्रधानमंत्री मोदी "ऐंद्र योग" में राष्ट्र की खुशहाली और कल्याण के लिए मां की सविधि आराधना---
भारत
के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी शुक्रवार (22 सितम्बर 2017 की) रात लगभग
आठ बजे काशी में विराजित नौ शक्ति पीठों में से एक मां दुर्गा की षोडशोपचार
विधि से पूजा करेंगे। यह पूजा बड़ी खास होगी। शारदीय नवरात्र की द्वितीया
को पीएम मोदी "ऐंद्र योग" में राष्ट्र की खुशहाली और कल्याण के लिए मां की
सविधि आराधना करेंगे।
नारियल-चुनरी अर्पित कर कर्पूर आरती
उतारेंगे। बुधवार को पीएम की ओर से की जाने वाली मां दुर्गा की पूजा और
आरती की सभी तैयारियां पूरी कर ली गई हैं। मंदिर के महंत समेत दुर्गा मंदिर
के छह अर्चक वैदिक मंत्रोच्चार के साथ अनुष्ठान कराएंगे। पीएम जब रात
8:05 बजे दुर्गा मंदिर में प्रवेश करेंगे, तब चित्र नक्षत्र में ऐंद्र योग
लगा रहेगा। इस योग में मां के दर्शन, पूजा का फलित समस्याओं के समाधान के
साथ ही राष्ट्र के लिए मंगलकारी होगा।
मार्कण्डेय
पुराण में ब्रह्माजी ने मनुष्यों के रक्षार्थ परमगोपनीय साधन, कल्याणकारी
देवी कवच एवं परम पवित्र उपाय संपूर्ण प्राणियों को बताया, जो देवी की नौ
मूर्तियां-स्वरूप हैं, जिन्हें 'नवदुर्गा' कहा जाता हैं
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जानिए इस नवरात्रि पर किस राशि वाले कौन से मंत्र का करें जाप-
1. मेष - ऊं ऐं सरस्वत्यै नमः माला 108 मोती की
2. वृषभ- ऊं क्र क्रूं कालिका देव्यै नमः माला 108 मोती की
3. मिथुन- ऊं दुं दुर्गायै नमः माला 108 मोती की
4. कर्क- ऊं ललिता दैत्ये नमः माला 108 मोती की
5. सिंह- ऊं ऐं महासरस्वती देव्यै नमः माला 108 मोती की
6. कन्या- ऊं शूल धारिणी देव्यै नमः माला 108 मोती की
7. तुला- ऊं हृीं महालक्ष्म्यै नमः माला 108 मोती की
8. वृश्चिक- ऊं शक्तिरूपायै नमः माला 108 मोती की
9. धनु- ऊं ऐं हृीं क्लीं चामुण्डायै नमः माला 108 मोती की
10. मकर- ऊं पां पार्वती देव्यै नमः माला 108 मोती की
11. कुंभ- ऊं पां पार्वती देव्यै नमः माला 108 मोती की
12. मीन- ऊं श्री हृीं श्रीं दुर्गा देव्यै नमः माला 108 मोती की
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कहा
जाता है कि नवरात्रि में कुछ विशेष मंत्रों का जाप करने से अभिष्ठ कार्य
की सिद्धि होती है और पूजा का कई गुना फल मिलता है। ये हैं वो मंत्र जिसका
नवरात्रि के नौ दिनों या किसी एक दिन उच्चारण करने से मां प्रसन्न होती हैं
और भक्त की व्याधि, रोग, पीड़ा और दरिद्रता को नष्ट कर भक्त को उत्तम
स्वास्थ्य और धन संपति का वरदान देती हैं।
ग्रहों
को शान्त करने का एक मात्र उपाय ग्रहों की शान्ति करना है। इसके लिये
यंत्र और मंत्र विशेष रुप से सहयोगी हो सकते है। माता के इन नौ दिनों में
ग्रहों की शान्ति करना विशेष लाभ देता है। इन दिनों में मंत्र जाप करने से
मनोकामनाएं शीघ्र पूरी होती हैं। नवरात्रि के पावन दिनों में विधि-विधान से
इन सिद्ध मंत्रों का जाप करना चाहिए। ये मंत्र आपको सुख एवं शांति प्रदान
करते हैं।
यदि आपके परिवार में दु:ख-दारिद्र का
वास बना हुआ है तो इस नवरात्रि में दुर्गा सप्तशती के इस मंत्र का पाठ कर
सकते हैं। सबसे पहले प्रातःकाल स्नान करके पूजन सामग्री के साथ पूजन स्थल
पूर्व दिशा की ओर मुंह करके बैठें। सामने दुर्गा जी की मूर्ति या प्रतिमा
रखें।
हर दिन पूजा समाप्ति के बाद उत्तर दिशा की ओर मुख कर निम्न मंत्रो का जाप अवश्य करें--
सिद्धिः सन्तु मम् कामः।।
कितनी बार मंत्र का जाप करना चाहिए...??
मंत्र का जाप 51 बार करना चाहिए तभी पूर्ण फल प्राप्त होता है।
अगर दुर्गा पाठ न कर सकें तो..???
अगर
आप दुर्गा सप्तशती नहीं कर सकते, अपनी राशि अनुसार मंत्र उच्चारण नहीं कर
सकते तो नमो देव्यै महा देव्यै शिवायै सतंत नमः का पाठ जरूर करें।
नीचे लिखे मंत्र से पूजन सामग्री और अपने शरीर पर जल छिड़कें।
ॐ अपवित्र: पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोअपी वा
य: स्मरेत पुण्डरीकाक्षं स बाहान्तर: शुचि:
इसके बाद पूजा के लिए संकल्प करें और फिर नीचे लिखे मंत्र में से किसी भी मंत्र का यथा शक्ति जप नवरात्र पूरे 9 दिन करें।
01 ---- ॐ ह्रीं दुं दुर्गाय नमः।
02 ----- ॐ ऐं वाग्देव्यै च विद्महे कामराजाय धीमहि, तन्नो देवी प्रचोदयात्।
03 ----- ॐ महादेव्यै च विद्महे विष्णु पत्न्यै च धीमहि, तन्नो लक्ष्मीः प्रचोदयात्।
04 ------
दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तो:
स्वस्थै:स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि।
दरिद्रायदु:खभयहारिणी का त्वदन्या
सर्वोपकारकरणाय सादर्द्रचित्ता।।
उपरोक्त
मंत्र का हिन्दी अर्थ:--- मां दुर्गे आप स्मरण करने पर सब प्राणियों का भय
हर लेती है और स्वस्थ जीवन प्रदान करती है। स्वस्थ पुरुषों द्वारा चिन्तन
करने पर उनको परम कल्याणमयी बुद्धि प्रदान करती है। दुःख, दारिद्रता और भय
हरने वाली हे देवी मां आपके सिवाय दूसरा कौन है जिसका चित्त, मन सभी का
उपकार करने के लिए सदा ही दयार्द्र रहता हो। इस मंत्र का जप करने वाला अपने
समस्त रोग, व्याधि, जरा, पीड़ा, दुःख, दरिद्रता से मुक्ति पा जाता है। इस
मंत्र का सम्पुट लगाकर नौ चंडी का पाठ घर में नवरात्रि में कराने से सभी
प्रकार के कष्टों से सरलता से मुक्ति हो जाती है। माता की अत्यन्त कृपा
प्राप्त होती है।
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इस शारदीय नवरात्री में विशेष लाभ हेतु कुछ अन्य उपयोगी मंत्र--
रक्षांसि यत्रोग्रविषाश्च नागा यत्रारयो दस्युबलानि यत्र।
दावानलो यत्र तथाब्धिमध्ये तत्र स्थिता त्वं परिपासि विश्वम्॥
-साधक इस मंत्र का जप विविध उपद्रवों से बचने के लिए करते हैं।
हिनस्ति दैत्यतेजांसि स्वनेनापूर्य या जगत्।
सा घण्टा पातु नो देवि पापेभ्योनः सुतानिव॥
-साधक इस मंत्र का जप अपने पापों को मिटाने के लिए करते हैं।
यस्याः प्रभावमतुलं भगवाननन्तो ब्रह्मा हरश्च न हि वक्तमलं बलं च।
सा चण्डिकाखिलजगत्परिपालनाय नाशाय चाशुभभयस्य मतिं करोतु॥
-साधक इस मंत्र के द्वारा अशुभ प्रभाव और भय का विनाश करने के लिए देवी दुर्गा की आराधना करते हैं।
देव्या यया ततमिदं जग्दात्मशक्त्या निश्शेषदेवगणशक्तिसमूहमूर्त्या।
तामम्बिकामखिलदेव महर्षिपूज्यां भक्त्या नताः स्म विदधातु शुभानि सा नः॥
-साधक इस मंत्र का जप सामूहिक कल्याण के लिए करते हैं।
ॐ जयन्ती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी।
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोस्तुते॥
-साधक इस मंत्र का जप सभी प्रकार के विघ्नों दूर करें और महामारी नाश के लिए करते हैं।
देवि प्रपन्नार्तिहरे प्रसीद प्रसीद मातर्जगतोखिलस्य।
प्रसीद विश्वेश्वरि पाहि विश्वं त्वमीश्वरी देवि चराचरस्य॥
-साधक इस मंत्र का जप विपत्तियों के नाश के लिए करते हैं।
सर्वभूता यदा देवी स्वर्गमुक्तिप्रदायिनी।
त्वं स्तुता स्तुतये का वा भवन्तु परमोक्तयः॥
-साधक इस मंत्र का जप स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति के लिए करते हैं।
नतेभ्यः सर्वदा भक्त्या चण्डिके दुरितापहे।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥
-साधक इस मंत्र का जप भक्ति प्राप्ति के लिए करते हैं।
प्रणतानां प्रसीद त्वं देवि विश्वार्तिहारिणि।
त्रैलोक्यवासिनामीड्ये लोकानां वरदा भव॥
-साधक इस मंत्र का जप प्रसन्नता प्राप्ति के लिए करते हैं।
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नवरात्रि
साधना को दो भागें में बाँटा जा सकता है : एक उन दिनों की जाने वाली जप
संख्या एवं विधान प्रक्रिया। दूसरे आहार- विहार सम्बन्धी प्रतिबन्धों की
तपश्चर्या ।। दोनों को मिलाकर ही अनुष्ठान पुरश्चरणों की विशेष साधना
सम्पन्न होती है।
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नवरात्रि
अनुष्ठान नर- नारी सभी कर सकते हैं। इसमें समय, स्थान एवं संख्या की
नियमितता रखी जाती है इसलिए उस सतर्कता और अनुशासन के कारण शक्ति भी अधिक
उत्पन्न होती है। किसी भी कार्य में ढील- पोल शिथिलता अनियमितता और अस्त-
व्यस्तता बरती जाय उसी में उसी अनुपात में सफलता संदिग्ध होती चली जायेगी।
उपासना के सम्बन्ध में भी यह तथ्य काम करता है। उदास मन से ज्यों- त्यों
जब, जब वह बेगार भुगत दी जाय तो उसके सत्परिणाम भी स्वल्प ही होंगे, पर यदि
उसमें चुश्ती, फुर्ती, की व्यवस्था और तत्परता बरती जायेगी तो लाभ कई गुना
दिखाई पड़ेगा। अनुष्ठान में सामान्य जप की प्रक्रिया को अधिक कठोर और अधिक
क्रमबद्ध कर दिया जाता है अस्तु उसकी सुखद प्रतिक्रिया तो अत्यधिक होती
है।
प्रयत्न यह होना चाहिए कि पूरे नौ दिन यह विशेष जप संख्या
ठीक प्रकार कार्यान्वित होती रहे। उसमें व्यवधान कम से कम पड़े। फिर भी कुछ
आकस्मिक एवं अनिवार्य कारण ऐसे आ सकते हैं जिसमें व्यवस्था बिगड़ जाय और
उपासना अधूरी छोड़नी पड़े। ऐसी दशा में यह किया जाना चाहिए कि बीच में जितने
दिन बन्द रखना पड़े उसकी पूर्ति के लिए एक दिन उपासना अधिक की जाय जैसे चार
दिन अनुष्ठान चलाने के बाद किसी आकस्मिक कार्यवश बाहर जाना पड़ा। तब शेष
पाँच दिन उस कार्य से वापस लौटने पर पूरे करने चाहिए। इसमें एक दिन व्यवधान
का अधिक बढ़ा देना चाहिए अर्थात् पाँच दिन की अपेक्षा छै दिन में उस
अनुष्ठान को पूर्ण माना जाय। स्त्रियों का मासिक धर्म यदि बीच में आ जाय तो
चार दिन या शुद्ध न होने पर अधिक दिन तक रोका जाय और उसकी पूर्ति शुद्ध
होने के बाद कर ली जाय। एक दिन अधिक करना इस दशा में भी आवश्यक है।
अनुष्ठान
में पालन करने के लिए दो नियम अनिवार्य हैं। शेष तीन ऐसे हैं जो यथा
स्थिति एवं यथा सम्भव किये जा सकते हैं। इन पाँचों नियमों का पालन करना पंच
तप कहलाता है, इनके पालन से अनुष्ठान की शक्ति असाधारण रूप से बढ़ जाती
है।
इन नौ दिनों ब्रह्मचर्य पालन अनिवार्य रूप से आवश्यक है।
शरीर और मन में अनुष्ठान के कारण जो विशेष उभार आते हैं उनके कारण कामुकता
की प्रवृत्ति उभरती है। इसे रोका न जाय तो दूध में उफान आने पर उसके पात्र
से बाहर निकल जाने के कारण घाटा ही पड़ेगा। अस्तु मनःस्थिति इस सम्बन्ध में
मजबूत बना लेनी चाहिए। अच्छा तो यह है कि रात्रि का विपरीत लिंग के साथ न
सोया जाय। दिनचर्या में ऐसी व्यस्तता और ऐसी परिस्थिति रखी जाय जिससे न
शारीरिक और न मानसिक कामुकता उभरने का अवसर आये। यदि मनोविकार उभरें भी तो
हठ पूर्वक उनका दमन करना चाहिए और वैसी परिस्थिति नहीं आने दी जाय। यदि यह
नियम न सधा, ब्रह्मचर्य खंडित हुआ तो वह अनुष्ठान ही अधूरा माना जाय। करना
हो तो फिर नये सिरे से किया जाय। यहाँ यह स्पष्ट है कि स्वप्नदोष पर अपना
कुछ नियन्त्रण न होने से उसका कोई दोष नहीं माना जाता ।। उसके प्रायश्चित्त
में दस माला अधिक जप कर लेना चाहिए।
दूसरा
अनिवार्य नियम है उपवास। जिनके लिए सम्भव हो वे नौ दिन फल, दूध पर रहें।
ऐसे उपवासों में पेट पर दबाव घट जाने से प्रायः दस्त साफ नहीं हो पाता और
पेट भारी रहने लगता है इसके लिए एनीमा अथवा त्रिफला- ईसबगोल की भूसी-
कैस्टोफीन जैसे कोई हलके विरेचन लिए जा सकते हैं।
एक
समय अन्नाहार, एक समय फलाहार, दो समय दूध और फल, एक समय आहार, एक समय फल
दूध का आहार, केवल दूध का आहार इनमें से जो भी उपवास अपनी सामर्थ्यानुकूल
हो उसी के अनुसार साधना आरम्भ कर देनी चाहिए।
महँगाई अथवा दूसरे
कारणों से जिनके लिए यह सम्भव न हो वे शाकाहार- छाछ आदि पर रह सकते हैं।
अच्छा तो यही है कि एक बार भोजन और बीच- बीच में कुछ पेय पदार्थ ले लिए
जायें, पर वैसा न बन पड़े तो दो बर भी शाकाहार, दही आदि लिया जा सकता है।
जिनसे
इतना भी न बन पड़े वे अन्नाहार पर भी रह सकते हैं, पर नमक और शक्कर छोड़कर
अस्वाद व्रत का पालन उन्हें भी करना चाहिए। भोजन में अनेक वस्तुएँ न लेकर
दो ही वस्तुएँ ली जायें। जैसे- रोटी, दाल। रोटी- शाक, चावल- दाल, दलिया,
दही आदि। खाद्य- पदार्थों की संख्या थाली में दो से अधिक नहीं दिखाई पड़नी
चाहिए। यह अन्नाहार एक बार अथवा स्थिति के अनुरूप दो बार भी लिया जा सकता
है। पेय पदार्थ कई बार लेने की छूट है। पर वे भी नमक, शक्कर रहित लेने
चाहिए।
जिनसे उपवास और ब्रह्मचर्य न बन पड़े वे अपनी जप संख्या
नवरात्रि में बढ़ा सकते हैं इसका भी अतिरिक्त लाभ है, पर इन दो अनिवार्य
नियमों का पालन न कर सकने के कारण उसे अनुष्ठान, संज्ञा न दी जा सकेगी और
अनुशासन साधना जितने सत्परिणाम की अपेक्षा भी नहीं रहेगी। फिर भी जितना कुछ
विशेष साधन- नियम पालन इस नवरात्रि पर्व पर बन पड़े उत्तम ही है।
तीन सामान्य नियम हैं- (१) कोमल शैया का त्याग (२) अपनी शारीरिक सेवाएँ अपने हाथों करना (३) हिंसा द्रव्यों का त्याग।
इन
नौ दिनों में भूमि या तख्त पर सोना तप तितीक्षा के कष्ट साध्य जीवन की एक
प्रक्रिया है। इसका बन पड़ना कुछ कठिन नहीं है। चारपाई या पलंग छोड़कर जमीन
पर या बिस्तर लगाकर सो जाना थोड़ा असुविधाजनक भले ही लगे, पर सोने का
प्रयोजन भली प्रकार पूरा हो जाता है।
कपड़े धोना,
हजामत बनाना, तेल मालिश, जूता, पालिश, जैसे छोटे- बड़े अनेक शारीरिक
कार्यों के लिए दूसरों की सेवा लेनी पड़ती है। अच्छा हो कि यह सब कार्य भी
जितने सम्भव हों अपने हाथ किये जायें। बाजार का बना कोई खाद्य पदार्थ न
लिया जाय। अन्नाहार पर रहना है तो वह अपने हाथ का अथवा पत्नी, माता जैसे
सीधे शरीर सम्बन्धियों के हाथ का ही बना लेना चाहिए। नौकर की सहायता इसमें
जितनी कम ली जाय उतना ही उत्तम है। रिक्शे, ताँगे की अपेक्षा यदि साइकिल,
स्कूटर, बस, रेल आदि की सवारी से काम चल सके तो अच्छा है। कपड़े अपने हाथ
धोना, हजामत अपने हाथ बनाना कुछ कठिन नहीं है। प्रयत्न यही होना चाहिए कि
जहाँ तक हो सके अपनी शरीर सेवा अपने हाथों ही सम्पन्न की जाय।
तीसरा
नियम है हिंसा द्रव्यों का त्याग। इन दिनों ९९ प्रतिशत चमड़ा पशुओं की
हत्या करके ही प्राप्त किया जाता है। वे पशु मांस के लिए ही नहीं चमड़े की
दृष्टि से भी मारे जाते हैं। मांस और चमड़े का उपयोग देखने में भिन्न लगता
है, पर परिणाम की दृष्टि से दोनों ही हिंसा के आधार हैं। इसमें हत्या करने
वाले की तरह उपयोग करने वाले को भी पाप लगता है। अस्तु चमड़े के जूते सदा के
लिए छोड़ सकें तो उत्तम है अन्यथा अनुष्ठान, काल में तो उनका परित्याग करके
रबड़, प्लास्टिक, कपड़े आदि के जूते चप्पलों से काम चलाना चाहिए।
मांस,
अण्डा जैसे हिंसा द्रव्यों का इन दिनों निरोध ही रहता है। आज- कल एलोपैथी
दवाएँ भी ऐसी अनेक हैं जिनमें जीवित प्राणियों का सत मिलाया जाता है। इनसे
बचना चाहिए। रेशम, कस्तूरी, मृगचर्म आदि का प्रायः पूजा प्रयोजनों में
उपयोग किया जाता है, ये पदार्थ हिंसा से प्राप्त होने के कारण अग्राह्य ही
माने जाने चाहिए। शहद यदि वैज्ञानिक विधि से निकाला गया है तो ठीक अन्यथा
अण्डे बच्चे निचोड़ डालने और छत्ता तोड़ फेंकने की पुरानी पद्धति से प्राप्त
किया गया शहद भी त्याज्य समझा जाना चाहिए।
न
केवल जप उपासना के लिए ही समय की पाबन्दी रहे वरन् इन दिनों पूरी दिनचर्या
ही नियमबद्ध रहे। सोने, खाने, नहाने आदि सभी कृत्यों में यथा सम्भव अधिक से
अधिक समय निर्धारण और उसका पक्का पालन करना आवश्यक समझा जाय। अनुशासित
शरीर और मन की अपनी विशेषता होती है और उससे शक्ति उत्पादन से लेकर सफलता
की दिशा में द्रुत गति से बढ़ने का लाभ मिलता है। अनुष्ठानों की सफलता में
भी यह तथ्य काम करता है।
अनुष्ठान के दिनों में मनोविकारों और
चरित्र दोनों पर कठोर दृष्टि रखी जाय और अवांछनीय उभारों को निरस्त करने के
लिए अधिकाधिक प्रयत्नशील रहा जाय। असत्य भाषण, क्रोध, छल, कटुवचन अशिष्ट
आचरण, चोरी, चालाकी, जैसे अवांछनीय आचरणों से बचा जाना चाहिए, ईर्ष्या,
द्वेष, कामुकता, प्रतिशोध जैसे दुर्भावनाओं से मन को जितना बचाया जा सके
उतना अच्छा है। जिनसे बन पड़े वे अवकाश लेकर ऐसे वातावरण में रह सकते हैं
जहाँ इस प्रकार की अवांछनीयताओं का अवसर ही न आवे। जिनके लिए ऐसा सम्भव
नहीं, वे सामान्य जीवन यापन करते हुए अधिक से अधिक सदाचरण अपनाने के लिए
सचेष्ट बने रहें ।।
नौ दिन की साधना पूरी हो जाने पर दसवें दिन
अनुष्ठान की पूर्णाहुति समझी जानी चाहिए। इन दिनों (१) हवन (२) ब्रह्मदान
(३) कन्याभोज के तीन उपचार पूरे करने चाहिए।
संक्षिप्त
गायत्री हवन पद्धति की प्रक्रिया बहुत ही सरल है। जप का शतांश हवन किया
जाना चाहिए। प्रतिदिन हवन करना हो तो २७ आहुतियाँ और अन्त में करना हो तो
२४० आहुतियों का हवन करना चाहिए। अच्छा यही है कि अन्त में किया गया और
उसमें घर परिवार के अन्य व्यक्ति भी सम्मिलित कर लिये जायें। यदि एक नगर
में कई साधक अनुष्ठान करने वाले हों तो वे सब मिलकर सामूहिक बड़ा हवन कर
सकते हैं, जिसमें अनुष्ठान कर्ताओं के अतिरिक्त अन्य व्यक्ति भी सम्मिलित
हो सकें ।। हवन में सुगन्धित पदार्थ अधिक हों, थोड़ी मात्रा में जौ, तिल,
चावल, शक्कर और घी भी मिलाया जाय। गायत्री हवन पद्धति में सारा विधि- विधान
लिखा है। ध्यानपूर्वक उसे पढ़ने और किसी जानकार की सहायता से समझने पर हवन
की पूरी विधि आसानी से सीखी, समझी जा सकती है। उतना न बन पड़े तो भी ताँबे
के कुण्ड में अथवा मिट्टी की वेदी बना कर उस पर आम, पीपल, बरगद, शमी, ढाक
आदि की लकड़ी चिननी चाहिए और कपूर अथवा घी में डूबी रूई की बत्ती से अग्नि
प्रज्वलित कर लेनी चाहिए। सात आहुति केवल घी की देकर इसके उपरान्त हवन
आरम्भ कर देना चाहिए। आहुतियाँ देने में तर्जनी उँगली काम में नहीं आती है।
अँगूठा, मध्यमा, अनामिका का प्रयोग ही जप की तरह हवन में भी किया जाता है।
मंत्र सब साथ- साथ बोलें, आहुतियाँ साथ- साथ दें। अन्त में एक स्विष्टकृत
आहुति मिठाई की। एक पूर्णाहुति सुपाड़ी, गोला आदि की खड़े होकर। एक आहुति
चम्मच से बूँद- बूँद टपका कर वसोधारा की। इसके बाद आरती, भस्म धारण, घृत
हाथों से मल कर चेहरे से लगाना, क्षमा- प्रार्थना, साष्टांग परिक्रमा आदि
कृत्य कर लेने चाहिए। इन विधानों के मंत्र न आते हों तो केवल गायत्री मंत्र
का भी हर प्रयोजन में प्रयोग किया जा सकता है। अच्छा तो यही है कि पूरी
विधि सीखी जाय और पूर्ण विधान से हवन किया जाय। पर वैसी व्यवस्था न हो सके
तो उपरोक्त प्रकार से संक्षिप्त क्रम भी अपनाया जा सकता है।
पूर्णाहुति
के बाद प्रसाद वितरण, कन्या भोजन आदि का प्रबन्ध अपनी सामर्थ्य के अनुसार
करना चाहिए। गायत्री आद्य शक्ति- मातृु शक्ति है। उसका प्रतिनिधित्व कन्या
करती है। अस्तु अन्तिम दिन कम से कम एक और अधिक जितनी सुविधा हो कन्याओं को
भोजन कराना चाहिए।
जिन्हें नवरात्रि की साधनायें करनी हों,
उन्हें दोनों बार समय से पूर्व उसकी सूचना हरिद्वार भेज देनी चाहिए, ताकि
उन दिनों साधक के सुरक्षात्मक, संरक्षण और उस क्रम में रहने वाली भूलों के
दोष परिमार्जन का लाभ मिलता रहे। विशेष साधना के लिए विशेष मार्ग- दर्शन
एवं विशेष संरक्षण मिल सके तो उससे सफलता की सम्भावना अधिक बढ़ जाती है।
वैसे प्रत्येक शुभ कर्म की संरक्षण भगवान स्वयं ही करते हैं।
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